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कविता

घुलते हुए गलते हुए

केदारनाथ सिंह


देखता हूँ बूँदें
टप‍-टप गिरती हुई
भैंस की पीठ पर
भैंस मगर पानी में खड़ी संतुष्ट।
उसके थन दूध से भारी।
पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण
पूरी ताकत से
थनों को खींचता हुआ अपनी ओर।
बूढ़े दालान में बैठे
हुक्का पीते - बारिश देखते हुए।
हुक्के के धुँए को
बाहर निकलते
और बारिश से हाथ मिलाते हुए।

सहसा बौछारों की ओट में
दिख जाती है एक स्त्री
उपले बटोरती हुई।
बूँदों की मार से
जल्दी-जल्दी उपलों को बचाने की कोशिश में
भीगती है वह
बचाती है उपले।
कहीं से आती है
उपलों से छनती हुई
फूल की खुशबू।
उपलों की गंध मगर फूल की गंध से
अधिक भारी
अधिक उदार

स्त्री को
बौछारों में
धीरे-धीरे घुलते हुए
गलते हुए देखता हूँ मैं।

 


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